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बिहारीदास : सतसई (चुने हुए दोहे), जगन्नाथ ‘रत्नाकर’ के संस्कारण (१९२५ ई.) से
In this session, we will explore the different interactions, situations, and rasas elicited by the nāyikā, nāyak, sakhīs, sakhās, sautans, and the other characters of early Hindi romantic poetry in the context of the seventeenth-century court poet Biharidas’s compact dohās.
पिय बिछुरन कौ दसुहु दुखु हरषु जात प्यौसार ।
दुरजोधन लौं देखियति तजत प्रान इहि बार ।।१५।।
पलनु पीक अंजन अधर धरे महावरु भाल ।
आजु मिले सु भली करी भले बने हौ लाल ।।२२।।
लाज गरब आलस उमग भरै नैन मुसकात ।
राति रमी रति देति कहि कहि औरै प्रभा प्रभात ।।२३।।
कुच गिरि चढ़ि अति थकित ह्वै चली डीठि मुँह चाड़ ।
फिरि न टरी परियै रही गिरी चिबुक की गाड़ ।।२६।।
नहिं परागु नहिं मधुर मधु नहिं बिकासु इहिं काल ।
अली कली ही सौ बंध्यौ आगैं कौन हवाल ।।३८
लाल तुम्हारे विरह की अगनि अनूप अपार ।
सरसै बरसैं नीर हूँ झर हूँ मिटै न झार ।।३९।।
देह दुलहिया की बढ़ै ज्यौं ज्यौं जोबन जोति ।
त्यौं त्यौं लखि सौत्यैं सबैं मलिन दुति होति ।।४०।।